गुरुवार, 10 मई 2012

ठाकरे साहब, हम हिंदीवालों से सीखिए


ठाकरे साहब, हम हिंदीवालों से सीखिए

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अपने धमकी भरे अंदाज को कायम रखते हुए राज ठाकरे ने कदम वापस खींच लिए हैं और मुंबई में बिहार दिवस के आयोजन में अटकाए जा रहे रोड़े फिलहाल दूर हो गए हैं। तो मान लें कि यह एक अफसोसजनक फसाना था, जो खत्म हो गया? यह जल्दबाजी होगी।
पहले मौजूदा विवाद की बात। राज ठाकरे अपने चिर-परिचित अंदाज में जब तड़क-भड़क रहे थे, तब भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शांत और सुस्थिर थे। तय था कि वह मुंबई जाएंगे। कहने की जरूरत नहीं कि कद के मामले में नीतीश कुमार और राज ठाकरे में कोई समानता नहीं है। इस जुबानी जंग ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि यदि कोई ‘बड़ा’ होता है, तो क्यों होता है?

यह विवाद भले ही ठंडा पड़ गया हो, पर महाराष्ट्र के अंदर जो घटित हो रहा है, वह चिंताजनक है। कुछ महीने पहले तीन-चार दिन वहां रहने का मौका मिला था और उस दौरान कई ऐसे अनुभवों से सामना हुआ, जो चौंकाते थे। मसलन, शिरडी के रास्ते में एक बड़े से रेस्तरां पर हम लोग खाना खाने के लिए रुके। उसका मालिक बाहर ही खड़ा हुआ था और मुख्य दरवाजा किसी वजह से बंद था। मैंने उससे हिंदी में अंदर जाने के लिए रास्ता पूछा। उसने ठेठ मराठी में जवाब दिया, जो समझ से परे था। बात समझते देर न लगी। इस बार मेरा सवाल अंग्रेजी में था। निखालिस इंग्लिश में उसका उत्तर भी मिला। लौटते वक्त वह फिर दरवाजे पर टकरा गया। मैंने और मेरी पत्नी ने रुककर उसके रेस्तरां की साज-सज्जा और भोजन की तारीफ की। हम इस बार हिंदी में बोल रहे थे और उसने भी हिन्दुस्तानी में जवाब दिया, ‘शुक्रिया।’

मैंने बिना चौंके उससे अगला सवाल किया कि हाईवे पर महाराष्ट्र में अच्छे रेस्तरां मिलते हैं, पर हिंदी प्रदेशों में ऐसा क्यों नहीं है? अगले दो-ढाई मिनट की बातचीत हिंदी में ही हुई। मतलब साफ है कि जब उस शख्स को अपनी प्रशंसा या स्वार्थ की किसी बात से वास्ता पड़ा, तो वह हिंदी में बोलने लगा। इससे कुछ मिनट पहले तक उसके लिए यह भाषा बेगानी थी। मुंबई की गलियों और सड़कों पर भी यह अजनबीपन दिखने लगा है। सपनों के इस शहर में आते-जाते तीन दशक होने को आए। पहले जो लोग मुंबइया हिंदी बोलते थे, वे अब मराठी बोलते हैं। मुंबई, पुणे और नागपुर जैसे शहर अपने मिजाज से मेट्रोपॉलिटन हैं। वहां इस तरह का व्यवहार अखरता है।
ऐसा नहीं है कि यह ‘छुआछूत’ सिर्फ एक खास तबके के लोगों को लगी हो। पुणे के एक पंचतारा होटल में तीन-चार साल पहले एक अजीब अनुभव हुआ था। हमने टेबल पहले से रिजर्व करा रखी थी। जब निर्धारित समय पर उस रेस्तरां में पहुंचे, तो उस पर कुछ और लोगों का कब्जा था। जब विरोध जताया, तो वहां मौजूद कर्मचारियों ने सफाई देने की बजाय उल्टा सवाल दाग दिया कि क्या आप लोग यूपी या बिहार से हैं? पंचतारा होटलों में आमतौर पर अंग्रेजी बोली जाती है, पर यह सवाल हिंदी में आया था। हालांकि, हमने प्रतिरोध अंग्रेजी में जताया था। सड़क के किनारे का वह रेस्तरां रहा हो या पंचतारा होटल का, दोनों में एक अजीब साम्य दिखा- हिंदी और हिंदीभाषियों के प्रति अलगाव का भाव।

भारत में और कहीं हो या न हो, पर होटल इंडस्ट्री अब भी ‘अतिथि देवो भव:’ की परंपरा में यकीन करती है। यह तिरस्कार अचंभे में डालने वाला था। उसी समय यह सवाल दिमाग में तैरने लगा कि क्या बाल ठाकरे ने अपने शुरुआती दिनों में जहर का जो बीज बोया था, उसकी फसल लहलहाने लगी है? याद कीजिए। एक समय था, जब आप तमिलनाडु में हिंदी में बात करते थे, तो अपमानित होते थे। अब चेन्नई जाता हूं, तो उतनी ज्यादा दिक्कत नहीं होती। वहां के लोगों से जब इस बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि हिंदी सिनेमा ने इसमें बहुत बड़ा योगदान अदा किया है, फिर उदारीकरण के इस दौर में लोग अपने कामकाज के सिलसिले में बहुत यात्राएं करने लगे हैं। इसने भी भाषायी कटुताओं को कम करने में मदद की है।

कमाल की बात है! मुंबई हिंदी फिल्मों का स्थायी पता है। वहां की फिल्मों ने दक्षिण के लोगों का मानस बदलने में सहायता की, पर दीपक तले इतना अंधेरा पसर जाएगा, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। कहने की जरूरत नहीं कि हिंदी-भाषियों के बिना मुंबई और महाराष्ट्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती। याद रखने की बात है कि हिंदी पत्रकारिता और भाषा में मराठीभाषी संपादकों का बहुत बड़ा योगदान है। बाबूराव विष्णु पराड़कर, लक्ष्मीनारायण गर्दे या मनोहर खाडिलकर ने पत्रकारिता करने के लिए महाराष्ट्र नहीं, वाराणसी को चुना था। आप में से बहुतों को शायद मालूम नहीं होगा कि ‘राष्ट्रपति’ शब्द पराड़कर जी की मेधा की उपज है। यही नहीं, आज जब हम भद्रता के साथ ‘सुश्री’ या ‘सर्वश्री’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो जानते भी नहीं कि उन्होंने इसका सबसे पहले प्रयोग किया था। प्रसंगवश एक बात और बता दूं कि 20वीं सदी के शुरुआती दिनों में जब अंग्रेजों से लड़ने के लिए ‘आज’ को प्रकाशित करने की बात हुई, तो बाबूराव विष्णु पराड़कर दिशा-निर्देशन लेने के लिए लोकमान्य तिलक के पास पुणे गए थे। यह थी हमारी राष्ट्रीयता और इसी ने हमें उन हुक्मरानों पर जीत दिलाई थी, जिनकी हुकूमत में सूरज कभी डूबता नहीं था।

अपना एक और अनुभव आपके साथ साझा करना चाहता हूं। 1980 में जब मैंने सक्रिय पत्रकारिता शुरू की, तो मेरे पहले संपादक विद्या भास्कर थे। विद्या भास्कर मूलत: तेलुगूभाषी थे, पर उनके हिंदी ज्ञान का लोहा बड़े-बड़े मानते थे। मैं उन्हें भाषायी शुद्धता का ‘आखिरी मुगल’ मानता हूं और बड़े गर्व से याद करता हूं उन दिनों को, जब हम जैसे नौजवान विनम्र भाव से उनसे कुछ हासिल किया करते थे।
मुझे गर्व है कि मैं काशी में जन्मा। आज भी उस छोटे से शहर में हिन्दुस्तान के कोने-कोने से आए विभिन्न जाति, धर्म और मूल के लोग स्थायी भाव से रहते हैं। वाराणसी महानगर नहीं है, पर संसार के किसी भी बड़े महानगर से अच्छी उसकी संस्कृति है, क्योंकि यह शहर साझा करना जानता है। यही नहीं, आप हिंदीभाषी प्रदेश के चाहे जिस शहर में चले जाएं, कोई आपके हकों पर सिर्फ इसलिए चोट नहीं पहुंचाएगा कि आपकी भाषा उसकी बोलचाल से जुदा है। अगर हिंदी प्रदेश दूसरे भाषा-भाषियों को सिर पर बिठाते हैं, तो बदले में उन्हें तिरस्कार क्यों मिलता है?
कल्पना कीजिए कि पराड़कर जी के समय में कोई राज ठाकरे काशी में हुआ होता तो? ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति वाले अंग्रेज तो उसे हाथों-हाथ ले लेते, पर हमारे यहां ठाकरे नहीं जनमते। क्यों नहीं जनमते? इस सवाल पर अगर ठाकरे परिवार गौर करे, तो यकीनन वे महाराष्ट्र के निर्माण में सार्थक योगदान कर पाएंगे।

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