शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा

चार साल में 300 करोड़ के मालिक बने रॉबर्ट वाड्रा

नई दिल्ली/अमर उजाला ब्यूरो
Story Update : Saturday, October 06, 2012    12:25 AM
Kejriwal accuses Vadra of corruption in land deals
आंदोलन के रास्ते राजनीति में जगह बनाने की कोशिश कर रहे अरविंद केजरीवाल ने प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा पर सनसनीखेज आरोप लगाए हैं। केजरीवाल ने कहा है कि वाड्रा ने करीब चार साल में 300 करोड़ रुपये की संपत्ति बना ली। उन्होंने कहा कि 2007 से लेकर 2010 तक वाड्रा की संपत्ति 50 लाख से बढ़कर 300 करोड़ रुपये हो गई, जबकि उनकी आय का एकमात्र जरिया डीएलएफ से मिला ब्याज मुक्त 65 करोड़ रुपये का लोन था। केजरीवाल के इन आरोपों से सियासी तूफान खड़ा हो गया है। कांग्रेस ने जहां इन आरोपों को निराधार और गैर जिम्मेदाराना करार देकर खारिज किया है, वहीं भाजपा ने आरोपों की जांच कराने की मांग कर दी है।

शुक्रवार शाम मीडिया से रूबरू अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगी जानेमाने वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि पिछले चार साल में वाड्रा ने एक के बाद एक 31 संपत्तियां खरीदीं, जिसमें से ज्यादातर कांग्रेस शासित दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में हैं। उन्होंने कहा कि 2007 में वाड्रा की पांच कंपनियों की कुल पूंजी 50 लाख रुपये थी। 2010 में इनकी संपत्ति 300 करोड़ रुपये हो गई। खास बात यह कि इस बीच कंपनियों की व्यावसायिक गतिविधियां न के बराबर रहीं। वाड्रा की संपत्ति बढ़ाने में डीएलएफ से मिले बिना गारंटी और ब्याज के लोन और डीएलएफ ने अहम भूमिका निभाई।

केजरीवाल और भूषण के मुताबिक कम कीमत पर संपत्ति का बड़ा हिस्सा डीएलएफ से खरीदा गया है। इसमें गुड़गांव के मैग्नोलिया अपार्टमेंट के 7 फ्लैट सिर्फ 5.2 करोड़ में खरीदे गए, जबकि उस वक्त भी एक फ्लैट की कीमत 35 से 70 करोड़ रुपये थी, जबकि मौजूदा कीमत 105 से 117 करोड़ रुपये है। इसी तरह गुड़गांव के एक अन्य फ्लैट की कीमत 89 लाख दिखाई गई है, जबकि उस वक्त इसकी कीमत करीब 20 करोड़ रुपये थी।

उन्होंने सवाल किया कि डीएलएफ ने 65 करोड़ रुपये का लोन क्यों दिया और वाड्रा के लिए संपत्ति की कीमत बाजार भाव से कम कीमत क्यों रखी गई? उन्होंने इसकी निष्पक्ष जांच की मांग भी की। उन्होंने आरोप लगाया कि वाड्रा को संपत्ति इतनी सस्ती मिलने के पीछे हो सकता है कि राज्यों की कांग्रेस सरकारों ने डीएलएफ को लाभ दिया हो। उन्होंने दावा किया कि वाड्रा की इन संपत्तियों का बाजार भाव 500 करोड़ रुपये के करीब है।

केजरीवाल के सवाल
1. चार साल में वाड्रा की संपत्ति 50 लाख से 300 करोड़ रुपये कैसे हो गई?
2. डीएलएफ ने 65 करोड़ का लोन बिना ब्याज क्यों दिया?
3. 7 फ्लैट सिर्फ 5.2 करोड़ में कैसे खरीदे, जबकिउस वक्त एक-एक फ्लैट की कीमत 35 से 70 करोड़ थी?
4. 20 करोड़ का फ्लैट 89 लाख में कैसे मिल गया?

केजरीवाल के आरोप आधारहीन और गैर जिम्मेदाराना हैं। कथित सिविल सोसाइटी समूह खुद को राजनीतिक दल में बदलने की कोशिश कर रहा है, लेकिन यह भाजपा की बी-टीम से ज्यादा कुछ नहीं है।
मनीष तिवारी, कांग्रेस 

वाड्रा के साथ कारोबारी संबंध पूरी तरह पारदर्शी थे। इनमें नैतिकता के उच्च मूल्यों का पालन किया गया।
डीएलएफ प्रवक्ता

कांग्रेस अध्यक्ष के दामाद को फायदा दिलाने के लिए कांग्रेस सरकारों ने एनसीआर में बहुत सारी जमीन डीएलएफ को दे दी। यदि डीएलएफ ने संपत्ति सस्ते दामों पर देकर वाड्रा के लिए चैरिटी की तो उसे अन्य लोगों के साथ भी ऐसा ही करना चाहिए।
रविशंकर प्रसाद, भाजपा 

हमने किसी को फायदा नहीं दिया। पारदर्शी तरीके से हुई नीलामी में सबसे ज्यादा ऊंची बोली लगाने वाले को ही जमीन आवंटित की गई है।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा, हरियाणा के सीएम
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सोनिया गाँधी के दामाद ने ली रिश्वत: केजरीवाल

 शुक्रवार, 5 अक्तूबर, 2012 को 19:43 IST तक के समाचार
 प्रियंका गाँधी रॉबर्ट वाड्रा
चंद रोज़ पहले अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने बनाने वाले अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर सैकड़ों करोड़ रुपए की रिश्वत लेने के आरोप लगाए हैं.
अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और उनके पिता शांति भूषण ने शुक्रवार को दिल्ली में हुई एक पत्रकारवार्ता में कुछ दस्तावेज़ पेश करते हुए आरोप लगाया कि उत्तर भारत के एक बड़े रियल एस्टेट डेवलपर डीएलएफ़ समूह ने गलत तरीकों से रॉबर्ट वाड्रा को 300 करोड़ रुपयों की संपपतियाँ कौड़ियों के दामों में दे दी.
कांग्रेस के प्रवक्ता और राज्य सभा सांसद राशिद अल्वी ने बीबीसी से बात करते हुए केजरीवाल के आरोपों को साज़िश करार दिया है. उन्होंने कहा, "बेबुनियाद खुलासे करते रहना केजरीवाल की आदत बन गई है."
भारत के मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने पूरे मामले को गंभीर बताया है और इसमें जांच की मांग की है.
केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी सभी आरोपों को निराधार बताया है और कहा है कि वाड्रा के द्वारा किए गए सभी व्यावसायिक व्यवहार सही हैं.

'गंभीर आरोप'

"डीएलएफ़ इनको पैसा दे दे कर अपनी ही सैकड़ों करोड़ की संपत्तियां कौड़ियों में दे रहा है. रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों में इनकी मूल पूँजी केवल 50 लाख रुपए लगी है. सवाल यह है कि कोई कंपनी किसी एक आदमी को इस तरह के लाभ क्यों दे रही है"
प्रशांत भूषण
प्रशांत भूषण ने कहा कि दस्तावेजों के मुताबिक डीएलएफ़ ने रॉबर्ट वाड्रा की फ़र्ज़ी कंपनियों को बिना ब्याज लिए 65 करोड़ रुपयों का असुरक्षित लोन दिया और उस पैसे से वाड्रा की कंपनियों ने डीएलएफ़ की ही 300 करोड़ रुपयों की संपत्तियां खरीद लीं.
प्रशांत भूषण ने कहा "डीएलएफ़ इनको पैसा दे दे कर अपनी ही सैकड़ों करोड़ की संपत्तियां कौड़ियों में दे रहा है. रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों में इनकी मूल पूँजी केवल 50 लाख रुपए लगी है. सवाल यह है कि कोई कंपनी किसी एक आदमी को इस तरह के लाभ क्यों दे रही है."
प्रशांत भूषण ने सवाल पूछते हुए कहा कि डीएलएफ़ ने रॉबर्ट वाड्रा को बिना ब्याज के इतना क़र्ज़ क्यों दिया और इतनी संपत्तियां वाड्रा को अपने ही पैसे से कौड़ियों के दाम पर क्यों दीं.
प्रशांत भूषण का आरोप है डीएलएफ़ को कांग्रेस शासित हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली राज्यों में सरकारों से बड़े पैमाने पर ज़मीन प्राप्त हुई है.
उदाहरण देते हुए भूषण ने कहा" हरियाणा सरकार ने वजीराबाद में डीएलएफ़ को किसानों से अधिगृहित कर के ज़मीन डीएलएफ़ को सौंप दी है. इस ज़मीन को सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए अधिगृहित किया गया था.

'वाड्रा उनकी माँ कंपनियों के मालिक'

"पूरी बात यह है कि डीएलएफ़ वाले वाड्रा को 300 करोड़ रुपए देना चाहते थे. डीएलएफ़ ने वो 300 करोड़ रुपया छह कंपनियों में कुछ लेन देन कर के दे दिया. ऐसा दिखाई देता है कि रॉबर्ट वाड्रा ने कुछ तो फायदा पहुंचाया है"
अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल ने कहा, "पूरी बात यह है कि डीएलएफ़ वाले वाड्रा को 300 करोड़ रुपए देना चाहते थे. डीएलएफ़ ने वो 300 करोड़ रुपया छह कंपनियों में कुछ लेन देन कर के दे दिया. ऐसा दिखाई देता है कि रॉबर्ट वाड्रा ने कुछ तो फायदा पहुंचाया है."
केजरीवाल और उनके साथी नेताओं का आरोप है कि "सभी लाभ पाने वाली कंपनियों में रॉबर्ट वाड्रा और उनकी माँ निदेशक है. एक समय तक इन कंपनियों में प्रियंका गाँधी भी निदेशक थीं लेकिन उन्होंने बाद में इन कंपनियों से हाथ झाड़ लिया."
शांति और प्रशांत भूषण सहित केजरीवाल तीनों ने इस मामले में जांच की बात कही लेकिन उन्होंने कहा कि किसी भी जांच का स्वतंत्र होना संभव नहीं है. केजरीवाल के अनुसार अगर जनलोकपाल बिल पारित कर दिया गया होता तो यह सब ना होता.

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

मुद्दा (www.rawivar.com)


 

अमरीका में वालमार्ट और भूखमरी

देविंदर शर्मा


रिटेल में एफडीआइ को कृषि की तमाम बीमारियों का रामबाण इलाज बताया जा रहा है. सरकार प्रचारित कर रही है कि इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी, बिचौलिये खत्म होंगे और उपभोक्ताओं को कम कीमत में सामान मिलेगा. साथ ही कृषि उपज की आपूर्ति में होने वाली बर्बादी पर अंकुश लगेगा. लेकिन इस दावे के उलट सारे तथ्य और आंकड़े बताते हैं कि यह सब झूठ है. यह दोषपूर्ण नीति लागू करने के बाद उद्योग जगत तथा नीति निर्माताओं द्वारा सुविधाजनक बहाना है.
वॉलमार्ट

यह जानने-समझने के लिए कि रिटेल में एफडीआइ का भारतीय कृषि पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हमें यूरोप और अमरीका के उदाहरणों पर नजर डालनी होगी. अमरीका में वालमार्ट की शुरुआत करीब 50 साल पहले हुई थी. इस दौरान बड़ी संख्या में किसान गायब हो चुके हैं, गरीबी बढ़ गई है और इसी साल भुखभरी ने 14 सालों का रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिया है.

जाहिर है, कोई भी देश फिर वह चाहे भारत हो, अमरीका या फिर जापान, अपने किसानों तथा गरीबों को सब्सिडी देना पसंद नहीं करेगा. भारत में राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी घटाने की मांग हो रही है. इसी उद्देश्य से सरकार ने तेल के दामों में कई बार बढ़ोतरी करके सब्सिडी का भार आम आदमी के सिर पर डाल दिया है. यही नहीं सरकार ने यूरिया को छोड़कर अन्य खादों से भी नियंत्रण हटा लिया है. इस प्रकार कृषि को मिलने वाली सब्सिडी में सरकार भारी कटौती कर रही है.

अमरीका भी कोई अपवाद नहीं है. अगर वालमार्ट इतनी ही किसानों की हितचिंतक है तो फिर अमरीका कृषि क्षेत्र में साल दर साल भारी सब्सिडी क्यों उडे़ल रहा है? अमरीका में 2008 में पारित हुए कृषि बिल में पांच वर्षो के लिए 307 अरब डॉलर यानी करीब 15,50,000 करोड़ रुपये की भारी-भरकम रकम का प्रावधान किया गया है. 2002-09 के बीच अमरीका किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता के रूप में 13 लाख करोड़ रुपये दे चुका है. विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में अमरीका ने इस सब्सिडी की जोरदार पैरवी की है और इनमें कटौती से साफ इन्कार कर दिया है.

30 धनी देशों के ओइसीडी समूह ने 2008 की तुलना में 2009 में कृषि सब्सिडी में 22 फीसदी की बढ़ोतरी की है, जबकि 2008 में भी इसमें 21 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी. 2009 में इन देशों ने 12.60 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी किसानों को दी थी.

तथ्य यह है कि दिग्गज रिटेल चेन के होते हुए यूरोप के किसान बिना सरकारी सहायता के जिंदा नहीं रह सकते. क्या इससे पता नहीं चलता कि यूरोप-अमरीका में उच्च कृषि आय बड़ी रिटेल चेन के बजाय सरकारी सब्सिडी के कारण है? असल में पूरी दुनिया में यूरोप कृषि को सहायता देने में सबसे आगे है. यूरोप में हर गाय पर करीब दो सौ रुपये की सहायता मिलती है, जबकि भारत में किसान एक गाय से रोजाना 40-50 रुपये ही कमा पाता है.

इससे एक सवाल पैदा होता है कि अगर किसानों की आमदनी में वृद्धि नहीं हो रही है तो बड़ी रिटेल चेन बिचौलियों को कैसे खत्म कर रही हैं? इसका जवाब यह है कि जो कुछ प्रचारित किया जा रहा है उसके विपरीत बड़ी रिटेल चेन बिचौलियों को खत्म नहीं कर रही हैं.

उदाहरण के लिए वालमार्ट खुद एक बिचौलिया है-एक बड़ा बिचौलिया जो तमाम छोटे बिचौलियों को हड़प जाता है. असल में बड़ी रिटेल चेन में बिचौलियों की पूरी श्रृंखला होती है. इनमें गुणवत्ता नियंत्रक, मानकीकरण करने वाले, प्रमाणन एजेंसी, प्रसंस्करण कर्ता आदि बिचौलियों के ही नए रूप हैं. केवल अमरीका में ही नहीं, यूरोप में भी किसानों की संख्या लगातार घटती जा रही हैं. वहां हर मिनट औसतन एक किसान खेती को तिलांजलि दे रहा है.

अगर बड़े रिटेलों के कारण किसानों की आमदनी बढ़ती है तो मुझे कोई कारण नजर नहीं आ रहा कि किसान खेती छोड़ रहे हैं. इस बात के भी कोई साक्ष्य नहीं हैं कि बड़े रिटेलर उपभोक्ता को कम दामों में सामान मुहैया कराते हैं. लैटिन अमरीका, अफ्रीका और एशिया में बड़े रिटेलर उपभोक्ताओं से खुले बाजार की तुलना में बीस से तीस प्रतिशत अधिक वसूल रहे हैं. अमरीका और यूरोप में बड़े रिटेल स्टोरों में खाद्य पदार्थ इन स्टोरों के परोपकार के कारण सस्ते नहीं हैं.

हकीकत ये है कि यहां विशाल सब्सिडी के कारण घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट आ जाती है और अमरीका व यूरोप, दोनों ही खाद्य पदार्थो तथा अन्य कृषि उत्पादों को भारी सब्सिडी देने के लिए जाने जाते हैं. उदाहरण के लिए 2005 में अमरीका ने अपने कुल 20,000 कपास उत्पादक किसानों को करीब 25,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी थी, जबकि इस कपास का मूल्य करीब 20,000 करोड़ रुपये ही था. इस सब्सिडी के कारण कॉटन का बाजार मूल्य करीब 48 फीसदी कम हो जाता है. इसी प्रकार खाद्य पदार्थो पर सब्सिडी दी जाती है.

अमरीका में वालमार्ट की तरह ही कारगिल व एडीएम जैसी अन्य व्यावसायिक कंपनियां बड़े स्तर पर कृषि उपजों का भंडारण करती हैं. मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि वालमार्ट, टेस्को और सेंसबरी जैसी कंपनियां उचित रूप से अन्न का भंडारण सुनिश्चित करती हैं.

मनमोहन सिंह कहते हैं कि रिटेलर उचित खाद्य भंडारण सुनिश्चित करते हैं, लेकिन इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं. खाद्यान्न का भंडारण सरकार का काम है, किंतु दुर्भाग्य से भारत में कभी खाद्यान्न भंडारण के काम को प्राथमिकता पर नहीं लिया गया. खुले में गेहूं सड़ रहा है और करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं. भारत में हमें अमूल के उदाहरण से सबक लेना चाहिए, जिसने जल्दी खराब हो जाने वाले दुग्ध उत्पादों को लंबी दूरी तक ले जाने की अत्याधुनिक आपूर्ति चेन विकसित की. हमें अमूल से सीखना चाहिए.

अब जरा इस दावे पर गौर करें कि बड़ी रिटेल कंपनियों के आने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. मनमोहन सिंह ने कहा है कि बड़ी रिटेल कंपनियां भारत में एक करोड़ रोजगार सृजित करेंगी. न जाने वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गए? अंतरराष्ट्रीय साक्ष्यों से पता चलता है कि बड़े रिटेलर रोजगार बढ़ाने के स्थान पर कम कर देते हैं.

वाल-मार्ट का कुल व्यापार 450 अरब डॉलर है. संयोग से भारत का रिटेल मार्केट भी 420 अरब डॉलर से कुछ अधिक है. जहां वाल-मार्ट ने कुल 21 लाख लोगों को रोजगार दिया है, वहीं भारत में रिटेल क्षेत्र में 1.20 करोड़ दुकानों में 4.4 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि वाल-मार्ट अतिरिक्त रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं कराएगी, बल्कि करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लेगी. निश्चित तौर पर भारत को अपने रिटेल क्षेत्र का आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसानों की आड़ लेकर रिटेल बाजार को विदेशी खिलाड़ियों के हवाले कर दिया जाए.

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

आम नागरिक का क्या होगा ?


भगवान ही इस देश का भला करे: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली/ब्यूरो
Story Update : Tuesday, October 02, 2012    1:04 AM
supreme court said god bless this country
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्युनल के सदस्यों को आवासीय सुविधा प्रदान करने में आनाकानी करने पर सोमवार को केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई। शीर्ष अदालत ने सरकार की खिंचाई करते हुए कहा कि इस देश का तो भगवान ही भला करे। उसने यह भी सवाल किया कि क्या ट्रिब्युनल में शामिल सेवानिवृत्त जजों से दिल्ली की सड़कों पर घूमते रहने की उम्मीद की जाती है।

जस्टिस आरएम लोढ़ा और जस्टिस एचएल गोखले की पीठ ने केंद्र सरकार के रवैये पर नाराजगी जताते हुए शहरी विकास मंत्रालय के सचिव से जवाब तलब किया है। पीठ ने उनसे जानना चाहा है कि दिल्ली में टाइप 7 और टाइप 8 के कितने बंगले खाली हैं। पीठ ने कहा कि आप गहरी नींद में चले जाते हैं और फिर चाहते हैं कि कोर्ट आपको जगाए। आप हमको वह करने पर मजबूर क्यों कर रहे हैं, जो हम करना नहीं चाह रहे। भगवान ही आपका और इस देश का भला करे।

पीठ ने यह टिप्पणी महादयी जल विवाद ट्रिब्युनल के चेयरमैन और उसके सदस्यों को सरकारी आवास दिलाने में अधिकारियों की नाकामी पर नाराजगी जाहिर करते हुए की। इस ट्रिब्यूनल का गठन करीब दो साल पहले नवंबर, 2010 किया गया था। यह ट्रिब्युनल कर्नाटक और गोवा के बीच जल विवाद के निपटारे के लिए बनाया गया था। सरकार के रवैये पर तल्ख टिप्पणियां करते हुए पीठ ने इस मामले की सुनवाई 30 अक्तूबर के लिए स्थगित कर दी।

इससे पहले एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हरेन रावल ने दलील दी कि अप्रैल 2012 में सरकार ने एक आदेश जारी किया था कि सामान्य वर्ग के तहत ट्रिब्युनल के सदस्य सरकारी आवास पाने के हकदार नहीं हैं। लेकिन पीठ उनके तर्कों से सहमत नहीं हुई, उसने कहा कि नियमों के मुताबिक वह आवास पाने के हकदार हैं। यदि आवास खाली हैं तो आप उन्हें आवास देने से इनकार नहीं कर सकते हैं। क्या आप चाहते हैं कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश दिल्ली की सड़कों पर घूमें। यदि आप नहीं चाहते कि ट्रिब्युनल काम करें तो ट्रिब्युनल में सेवानिवृत्त जजों की नियुक्ति का कानून खत्म कर दें।

रविवार, 30 सितंबर 2012

‘पार्टी फंड की दाल में काला ही काला'


‘पार्टी फंड की दाल में काला ही काला'

 रविवार, 30 सितंबर, 2012 को 15:22 IST तक के समाचार
भारत में सबसे बड़ी समस्या ये है कि जितना अधिक हम बदलाव की चर्चा करते हैं चीज़ें उतनी ही अधिक पहले जैसी रह जाती हैं.
चुनाव सुधारों और पार्टी व्यवस्था में पारदर्शिता को लेकर लंबे समय से चर्चा जारी है लेकिन चुनावी खर्च पर नज़र रखने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के एक ताज़ा अध्ययन के मुताबिक भारत की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले फंड और उनकी आमदनी के लेखेजोखे में अब भी काफी घालमेल है.
भारत में राजनीतिक पार्टियों के लिए 20,000 से ज्यादा के चंदे की सभी जानकारियां चुनाव आयोग को सौंपना ज़रूरी है. इसके आधार पर वो कर में छूट के लिए भी आवेदन दे सकते हैं. लेकिन यह तभी संभव है जब पार्टियां अपने खर्च और कमाई का पूरा लेखाजोखा उपलब्ध कराएं.
सूचना के अधिकार के ज़रिए निकाली गई जानकारी के मुताबिक इस निगरानी संस्था ने 2003 से 2011 के बीच छह राष्ट्रीय पार्टियों और 36 क्षेत्रीय पार्टियों से उनके धन का ब्यौरा मांगा.
"मुमकिन है कि ज्यादातर लोग चंदे में ‘काला धन’ देते हैं जिस पर वो कोई कर नहीं देते. लगता है वही लोग पार्टियों को चंदा दे रहे हैं जो गलत तरीकों से पैसा कमाते हैं और उस पर कर नहीं देते. "
संस्था से जुड़े जगदीप छोकर
जवाब में जो तथ्य सामने आए वो चौंकाने वाले थे.
  • सबसे बड़ी पांच पार्टियों ने 2004 से 2011 के बीच चंदे और आर्थिक सहयोग से लगभग 39 अरब रुपए की कमाई की.
  • इस तरह की कमाई में सबसे ऊपर है सत्तारुढ़ कांग्रेस पार्टी जिसके बाद भारतीय जनता पार्टी का नंबर आता है. इस सूची में बहुजन समाज पार्टी यहां तक कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल है.सबसे चौंकाने वाली बात ये कि इस धन का 20 फीसदी से भी कम हिस्सा आधिकारिक रुप से सार्वजनिक किया गया है.
  • साल 2009 से 2011 के बीच कांग्रेस ने अपने धन का केवल 11.89 फीसदी और भाजपा ने अपनी कमाई के केवल 22.76 फीसदी हिस्से के बारे में जानकारी साझा की.
  • वहीं मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी का कहना है कि उसे 2009-2010 के बीच 20,000 रुपए से ज्यादा का चंदा नहीं मिला. हालांकि इस दौरान पार्टी की कमाई का ब्यौरा एक अरब 60 लाख से ज्यादा है.
  • सीपीआई एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने अपनी कमाई के 57 फीसदी हिस्से का ब्यौरा सार्वजनिक किया है.
ज़ाहिर है राजनीतिक पार्टियां अगर अपनी कमाई का 80 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक नहीं कर रहीं तो दाल में ज़रूर कुछ काला है.
निगरानी संस्था से जुड़े जगदीप छोकर का मानना है कि ज्यादातर लोग चंदे में ‘काला धन’ देते हैं जिस पर वो कोई कर नहीं देते. मुमकिन है कि वही लोग पार्टियों को चंदा दे रहे हैं जो गलत तरीकों से पैसा कमाते हैं और उस पर कर नहीं देते.
पार्टियों को दिए जाने वाले पैसे के सवाल पर ई श्रीधरन और राजीव गौडा जैसे विचारकों का कहना है कि इसकी एक बड़ी वजह पार्टी फंड पर कर चुकाने पर मिलने वाले प्रोत्साहनों में कमी भी हो सकती है.
ज़ाहिर है भारत में राजनीतिक पार्टियों के चंदे को लेकर कई तरह के सुधारों की ज़रूरत है. पार्टिंया अगर छोटे सहयोगियों से पैसे लें तो इससे ये प्रक्रिया लोकतांत्रिक होगी और पैसे का लेखाजोखा रखना आसान किया जा सकेगा.