शनिवार, 30 जुलाई 2011

किसका लोकपाल


सुरेंद्र कुमार
Story Update : Friday, July 29, 2011    9:35 PM
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सरकार, विपक्षी दल, उद्योग जगत, मीडिया, नागरिक समाज और अनगिनत स्वयंसेवी समूह आम आदमी का भाग्य बदलने के लिए अथक परिश्रम का दावा करते हैं। लेकिन पिछले एक दशक से आठ प्रतिशत आर्थिक विकास दर के बावजूद देश की 70 करोड़ जनता महसूस करती है कि उनका जीवन बेहतर नहीं हुआ है। पेशेवर अर्थशास्त्रियों को इस पर बहस करने दीजिए कि गरीब कौन है ः वह जो रोज 12 रुपये कमाता है या वह, जो 14 रुपये कमाता है। अगर 25 रुपये दैनिक कमाने वाले को गरीब माना जाए, तब भी यह आश्चर्य ही है कि पिछले एक वर्ष से बुनियादी जरूरत की चीजों की आसमान छूती कीमत के दौर में वह जिंदा कैसे है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी मनरेगा व खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम का श्रेय लेते हैं, जो उचित ही है। विदर्भ में भारी संख्या में लोग इन्हीं दो उपायों के कारण भूख और आत्महत्या से बच पाए। लेकिन विद्रूप यह है कि इन योजनाओं को लागू करने वाले लोग ही करोड़ों रुपये डकार गए हैं। मौज-मस्ती करने वालों को जनता के हित-अहित का ज्ञान नहीं होता।

अस्सी के दशक में राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि सरकार द्वारा भेजे गए एक रुपया में से मात्र 15 पैसे ही लक्षित समूह तक पहुंच पाता है। उसके लगभग ढाई दशक बाद उनके पुत्र राहुल गांधी कहते हैं कि एक रुपया में मात्र दस पैसे ही जरूरतमंदों तक पहुंच पाता है। आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों में जीडीपी कई गुना बढ़ा है, लेकिन भ्रष्टाचार भी इतना ही बढ़ गया है। इसके लिए कौन दोषी है, राजनेता या आम आदमी?

सरकार भ्रष्टाचार को पूरी तरह से खत्म करने का दावा करती है और अपनी ईमानदारी के सुबूत के रूप में राजा, कलमाडी एवं कनिमोझी को जेल भेजने का हवाला देती है। उसके विरोधियों का कहना है कि ये गिरफ्तारियां सुप्रीम कोर्ट के सीधे हस्तक्षेप और मीडिया, आम आदमी, सिविल सोसाइटी खासकर अन्ना हजारे टीम के भारी दबाव का नतीजा हैं। जिस तरह से भ्रष्टाचार के नए मामले रोजाना सामने आ रहे हैं, उससे लगता है कि पूरा देश ही भ्रष्टाचार के दलदल में धंस गया है।

मनमोहन सरकार और 125 वर्ष पुरानी कांग्रेस हताश, असुरक्षित और असहाय नजर आ रही है। दोनों ही आतंकवाद, महंगाई, नक्सलवाद, भूमि अधिग्रहण, तेलंगाना जैसे मुद्दों पर खुद को मुश्किल में पा रहे हैं। लेकिन जो मुद्दा उन्हें सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है, वह भ्रष्टाचार है। अगर भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान जारी रहा और नए मामले इसी तरह निकलते रहे, तो चाहे उनके खिलाफ कानूनी रूप से कुछ साबित हो या नहीं, कांग्रेस अगले संसदीय चुनाव में हारकर केंद्र की सत्ता खो सकती है।

अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को गंभीर, ईमानदार और संवेदनशील माना जाता है। वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध और गंभीर हैं। लेकिन यह भी स्वीकार करना चाहिए कि न तो अन्ना हजारे महात्मा गांधी हैं और न उनके समर्थक देवदूत। जो रणनीति उन्होंने अपनाई है, वह भी गांधीवादी नहीं है। हजारे लोकतांत्रिक नहीं हैं: उन्होंने भूषण द्वय (शांति और प्रशांत) को संयुक्त मसौदा समिति में शामिल करने के लिए तमाम सार्वजनिक विरोधों को दरकिनार कर दिया। गांधी कहते थे, पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। लेकिन हजारे राजनेताओं का मजाक उड़ाने का मौका शायद ही कभी चूकते हैं और उन सभी को भ्रष्ट बताते हैं। क्या यह उचित है? दिग्विजय सिंह के उकसावे पर हजारे की टिप्पणी, कि उन्हें इलाज के लिए पुणे के पागलखाने में ले जाना चाहिए, कहीं से भी गांधीवादी नहीं थी। सबसे बड़ी बात कि गांधी जी ने टोपी उछालने के लिए कभी अनशन पर जाने की धमकी नहीं दी, जबकि अन्ना ने ऐसा किया।

अन्ना हजारे की टीम के अलावा भी लाखों भारतीय ईमानदार और भ्रष्टाचार विरोधी हैं, लेकिन वे सड़क पर लड़ाई के लिए नहीं उतरते। हां, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से हताश ये लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ हो लेते हैं। टीम अन्ना का कहना है कि उसने यह अभियान देश के नागरिकों के हित में छेड़ा है, जो उसके मुताबिक संसद से बड़ा है। सरकार भी यही दावा करती है। लेकिन वह संविधान और संसद को नजर अंदाज नहीं कर सकती।

जंतर-मंतर पर मिले समर्थन और सरकार की घबराहट से वाकिफ अन्ना ने 16 अगस्त से अनशन पर जाने और आजादी की दूसरी लड़ाई शुरू करने की घोषणा कर दी है। लेकिन कइयों को लगता है कि उनकी रणनीति अलोकतांत्रिक है। उन्होंने प्रधानमंत्री, मंत्रियों, उच्च न्यायपालिका और वरिष्ठ लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने की वकालत की, लेकिन आम आदमी को कांस्टेबल, दारोगा, पटवारी, बीडीओ, तहसीलदार, मुंसिफ, कलक्टर और अन्य सरकारी कर्मचारियों से बचाने के लिए कुछ भी नहीं सुझाया, जिससे उसे रोजाना निपटना पड़ता है।

अगर सरकार और राजनेताओं की साख अच्छी होती, तो कैबिनेट द्वारा पारित लोकपाल विधेयक की इतनी आलोचना नहीं होती। लेकिन मामला यह नहीं है। कॉरपोरेट भ्रष्टाचार और चुनावी फंडिंग में इसकी भूमिका के बारे में इस विधेयक में कुछ नहीं है। जाहिर है, चुप्पी जवाब नहीं हो सकती। बेशक एक मजबूत लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार पर कमोबेश अंकुश लगाने की उम्मीद जगा सकता था, लेकिन आम आदमी का जिस भ्रष्टाचार से रोज सामना होता है, वह तब तक खत्म नहीं हो सकता, जब तक सरकार की ओर से वास्तविक प्रतिबद्धता नहीं जताई जाती।
- लेखक पूर्व राजनयिक हैं।
(अमर उजाला से साभार)