शनिवार, 9 जुलाई 2011

मायावती सरकार की साख पर चोट

मायावती सरकार की साख पर चोट

किसानों के साथ मायावती (फ़ाइल फ़ोटो)
ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि ग्रेटर नोएडा में ज़मीन अधिग्रहण अधिग्रहण रद्द करने का फ़ैसला बिल्डर्स और फ़्लैट ख़रीदने वालों के ख़िलाफ़ है.
लेकिन टीकाकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय वास्तव में माया सरकार की साख पर चोट है.
विधान सभा चुनाव अब कुछ महीने बाक़ी हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि विपक्ष को सरकार पर हमले का एक और मज़बूत हथियार मिल गया है.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश और मौखिक टिप्पणी में मुख्य बात यह है कि ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी यानी उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से किसानों को सुनवाई का मौक़ा दिए बग़ैर 'तत्काल ज़रुरत' यानी 'अर्जेंसी' के आधार पर ज़मीन अधिग्रहण करना सरकार को मिली शक्तियों का दुरूपयोग है.
दूसरे यह कि जिस औद्योगिक विकास का उद्देश्य दिखाकर ज़मीन ली गई, वह धोखा था और असली उद्देश्य बिल्डर्स को फ़ायदा पहुंचाना था.
भट्टा परसौल
भट्टा परसौल में मई में हुई घटना ने भूमि अधिग्रहण के सवाल को गहरा दिया है
इसका सीधा मतलब है कि ज़मीन अधिग्रहण का फ़ायदा पाने वाली कंपनियों और सरकार चलने वालों के बीच कहीं न कहीं नापाक गठजोड़ है यानी भ्रष्टाचार हुआ है.
तीसरी बात यह कि अगर किसान उचित मुआवज़ा पाने के लिए आंदोलन करता है तो उन्हें लाठी-गोली और गिरफ़्तारी मिलती है और महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है.
दरअसल इसमें केवल किसानों के साथ अन्याय नहीं हुआ है , जिन लोगों ने प्रस्तावित बहुमंज़िली रिहायशी कालोनियों में बैंक से कर्ज़ , प्राविडेंट फंड से उधार लेकर या जेवर बेचकर पैसा लगाया वे लोग भी ठगे गए हैं.
वे इस धोखे का शिकार इसलिए हुए क्योंकि इन बिल्डर्स ने अपनी योजनाओं पर ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी यानी उत्तर प्रदेश सरकार की मोहर लगा रखी थी.

विपक्ष का कड़ा रुख़

उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार ने अब तक गंगा एक्सप्रेस-वे , यमुना एक्सप्रेस-वे और ताज कॉरिडोर वे के नाम पर टाउनशिप बनाने का लाइसेंस पूंजी वाले घरानों को बांटा है. किसानों से सस्ती ज़मीन लेकर बिल्डरों को देने में सरकार ने बिचौलिए का काम किया है और अपना कमीशन बनाया है
अहमद हसन, प्रवक्ता, समाजवादी पार्टी
सुप्रीम कोर्ट ने जितनी कड़ी टिप्पणी कर दी है उसके बाद तो विपक्ष को यह कहने का और मौक़ा मिल गया है कि कंपनी वाले मायावती की सरकार चला रहे हैं.
विधान परिषद में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता अहमद हसन ने एक बयान में कहा है,"उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार ने अब तक गंगा एक्सप्रेस-वे , यमुना एक्सप्रेस-वे और ताज कॉरिडोर वे के नाम पर टाउनशिप बनाने का लाइसेंस पूंजी वाले घरानों को बांटा है. किसानों से सस्ती ज़मीन लेकर बिल्डरों को देने में सरकार ने बिचौलिए का काम किया है और अपना कमीशन बनाया है."
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मुख्य प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव ने एक बयान में कहा,"राहुल गांधी की भट्टा-परसौल से शुरू की गई पदयात्रा से बुरी तरह डरी, सहमी एवं घबराई हुई मायावती सरकार के मुंह पर उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय करारा तमाचा है, जो लगातार धोखाधड़ी और छल का सहारा लेकर किसानों की ज़मीनों को सस्ते दामों में अधिग्रहीत करके हजारों करोड़ रूपये की कमीशनखोरी और वसूली करके बिल्डरों और भू-माफियाओं को बेच रही थी."
कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा, "एक ओर तो छले गए किसानों को उनकी ज़मीन वापस मिलेगी वहीं दूसरी ओर साज़िश के तहत किसानों की ज़मीनें हड़पकर बड़े पूंजीपतियों, बिल्डरों और भू-माफियाओं को हस्तांतरित करने के मायावती सरकार की साज़िशों पर अंकुश लगेगा."

आरोप-प्रत्यारोप

पदयात्रा पर राहुल गांधी
राहुल गांधी पदयात्रा करके किसानों से मिल रहे हैं
कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी पदयात्रा में भी मायावती सरकार की ओर से किसानों के साथ अन्याय और कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने की बात कह रहे हैं.
जहाँ मुख्यमंत्री मायावती ने आम आदमी तो क्या अपनी पार्टी के विधायकों और मंत्रियों से भी दूरी बना रखी है, राहुल गांधी सीधे आम आदमी के बीच जाकर उनसे भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
भारतीय जनता पार्टी ने तो ज़मीन अधिग्रहण घोटाले पर बाक़ायदा श्वेत पत्र जारी किया है.
बहुजन समाज पार्टी के प्रवक्ता ने कहा है, "उनका किसान प्रेम मात्र एक दिखावा है और उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनाव को देखते हुये यह राजनीतिक ड्रामेबाजी कर रहे हैं."
मायावती सरकार हर बार केवल यही बात कह रही है कि केन्द्र पुराना ज़मीन अधिग्रहण कानून बदले.
मायावती यह भी कह रही है कि राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश में पदयात्रा की नौटंकी न करके दिल्ली जाकर भूमि अधिग्रहण कानून बदलवाएं और डीज़ल का बढ़ा दाम वापस कराकर किसानों को राहत दिलाएं.

नई नीति पर भी सवाल

किसानों का आंदोलन
जगह-जगह किसान ज़मीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं
लेकिन यहाँ सवाल क़ानून बदलने से ज़्यादा उसे लागू करने में निजी स्वार्थ और बदनीयती का है.
ख़बरें है माया सरकार ने अपनी नई अधिग्रहण नीति में कंपनियों की ओर से क़रार नियमावली के तहत सीधे किसानों से ज़मीन खरीदने का जो प्राविधान किया है उसमें भी सरकारी मशीनरी किसानों पर ज़ोर ज़बरदस्ती करके कंपनी को ज़मीन दिलवा रही है.
जानकार लोगों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश नज़ीर बन गया है और अभी प्रदेश भर में दूसरे स्थानों पर ज़मीन अधिग्रहण के जो मामले अदालत में चल रहे हैं , उनमे भी माया सरकार को झटका लग सकता है.
इनमें इलाहाबाद की करछना बिजली परियोजना, यमुना एक्सप्रेस-वे , गंगा एक्सप्रेस-वे के अलावा लखनऊ एवं दूसरे बड़े शहरों में प्रस्तावित हाई-टेक सिटी परियोजनाएं भी प्रभावित हो सकती हैं.

राजनीतिक नुक़सान

मायावती और बहुजन समाज पार्टी कि सबसे बड़ी पूँजी यह थी कि दलित और ग़रीब उन्हें अपना हितैषी समझता था.
लेकिन बलिया से नोएडा तक भूमि अधिग्रहण की जो कार्रवाई चार सालों से चल रही है उसमें छोटे किसान और भूमिहीन खेतिहर मज़दूर भी प्रभावित हो रहे हैं.
मायावती
मायावती को अगले साल विधानसभा चुनाव का सामना करना है
पिछले लोक सभा चुनाव के परिणामों पर नज़र डालें तो साफ़ दिखता है कि बहुजन समाज पार्टी को बलिया से गौतम बुद्धनगर तक उन अधिकांश सीटों पर हार का सामना करना पड़ा जो प्रस्तावित गंगा एक्सप्रेस-वे योजना का इलाक़ा है.
पश्चिम में तो इस समय पांच एक्सप्रेस-वे योजनाएँ प्रस्तावित हैं.
अकेले यमुना एक्सप्रेस-वे में छह ज़िलों के लगभग बारह सौ गाँव प्रभावित हैं.
पूरे प्रदेश में कई हजार गाँव हैं जो उत्तर प्रदेश सरकार की ज़मीन अधिग्रहण की कार्रवाई से प्रभावित हैं.
बिल्डर्स और कंपनी वाले शायद अभी तक इस भरोसे में थे कि पहले की तरह मायावती सरकार सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत दिला देंगीं. मगर ऐसा नहीं हो पाया.
चर्चा तो यह भी है कि न्यायमूर्ति के जी बालाकृष्णन के ज़माने में मायावती के सर पर अदालत का हाथ था. अब वह स्वयं जांच के घेरे में हैं.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश एक तरह से माया सरकार के लिए खतरे की घंटी है.
सरकार संभलना चाहे तो नौकरशाही को किनारे करके प्रभावित किसानों से सीधे बात करे उनकी समस्याओं का समाधान करे या फिर चुनाव में राजनीतिक नुक़सान उठाने के लिए तैयार रहे.

    मंगलवार, 5 जुलाई 2011

    जड़ पर वार

    जड़ पर वार
    जोगिंदर सिंह
    Story Update : Monday, July 04, 2011    9:37 PM
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    लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भले ही कोई नतीजा न निकला हो, लेकिन इससे कानून बनाने की स्थापित प्रक्रिया और संसद की भू्मिका का महत्व रेखांकित हुआ है। इस बैठक में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार कैसा लोकपाल चाहती है। उनका यह कहना गौर करने लायक है, ‘लोकपाल अन्य संस्थाओं और कानूनों से सामंजस्य बिठाकर और संविधान के मूल ढांचे के तहत ही काम करेगा। इसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्य संस्थानों के प्राधिकार और वैध भूमिका से इनकार नहीं होगा। हमारा संविधान संतुलन और नियंत्रण की एक जटिल प्रणाली प्रदान करता है और लोकपाल का नया संस्थान उसी में अपने लिए उचित स्थान बनाएगा।’ दरअसल राजनीतिक दलों को इस पर खासा एतराज था कि सरकार लोकपाल विधेयक के मसौदे पर संसद की उपेक्षा कर नागरिक समाज के प्रतिनिधियों से बात कर रही थी।

    लोकतंत्र का एक बड़ा लाभ है कि इसमें हर कोई खुद को सभी विषयों का उस्ताद समझता है और मानता है कि वह जो सुझा रहा है, वह सारी बुराइयों की रामबाण दवा है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के दो सामाजिक कार्यकर्ता देश से भ्रष्टाचार कैसे खत्म किया जाए और कैसे विदेशों से काले धन को वापस लाया जाए, इसे लेकर लोगों का ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। असल में भ्रष्टाचार के शुरुआती स्तर से तो आम आदमी का ही साबका पड़ता है और उसकी तकलीफ को कम करने वाला छोटा-सा कदम भी स्वागत योग्य है। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए या नहीं, यह बहस सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई से ध्यान हटाने का ही काम कर रही है।

    किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए यह जरूरी है कि आपको यह पता हो कि समस्या की जड़ कहां है, इसे हल करने की राह में कैसे अड़ंगे हैं और अंततः क्या किया जाए। जन्म प्रमाण पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कॉर्ड, पासपोर्ट, पैन कार्ड, घर की खरीदी-बिक्री या किराये संबंधी करारनामे और इसी तरह के अन्य दस्तावेज तो ऐसे हो गए हैं, जिनकी जरूरत दाखिले से लेकर नौकरी तक हर जगह पड़ती है। और इन्हें सरकारी कर्मचारियों को घूस दिए बिना हासिल नहीं किया जा सकता।

    जाहिर है, व्यापक भ्रष्टाचार को साबित करने के लिए अगर किसी प्रमाण की जरूरत है, तो किसी को अपने घर से ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, सत्ता में आने के बाद वह इंस्पेक्टर राज खत्म करने की बात करती है, लेकिन पारित होने वाला हर कानून एक और इंस्पेक्टर को बढ़ाता है। भ्रष्टाचार ने इंस्पेक्टर राज की समस्या को बदतर बना दिया है। अच्छा कॉरपोरेट प्रशासन सुनिश्चित करने के बजाय ऐसे इंस्पेक्टर अकसर सत्ता में बैठे राजनेताओं और अधिकारियों के लिए पैसे उगाहते हैं। कुछ अपवादों के साथ यह सब कुछ केवल यही दर्शाता है कि भारतीय नौकरशाही में हर स्तर पर घूस की संस्कृति मौजूद है।

    सरकार व्यापक रूप से भ्रष्टाचार उन्मूलन के प्रति उदासीन है। दरअसल सरकार जब विशेष रूप से भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कोई कानून बनाती है, तो न केवल उसमें पर्याप्त कमियां छोड़ देती है, बल्कि भ्रष्ट और बेईमानों को संरक्षण भी देती है। भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ केंद्र या राज्य सरकार की मंजूरी से ही मुकदमा चलाया जा सकता है। मगर सरकार अभियोग लगाने वाली एजेंसियों के प्रस्ताव को टालकर किसी भी आरोपी को आसानी से बचा सकती है। असल में यह कानून अंगरेजों ने लागू किया था और इसके जरिये वे अपने वफादारों को बचाते थे।

    2010 के अंत में 236 कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार से जुड़े आरोप में अभियोजन की अपील केंद्र सरकार के समक्ष लंबित थी। 2005 से 2009 के बीच सीबीआई और सीवीसी ने भ्रष्टाचार के जिन मामलों को अभियोजन के उपयुक्त पाया था, उनमें से मात्र छह फीसदी मामलों पर सरकार से अभियोजन की मंजूरी मिली। बाकी 94 फीसदी मामलों को विभागीय दंड या उससे भी कम पर छोड़ दिया गया।

    फिलहाल इस बात पर बहस छिड़ी है कि प्रधानमंत्री और उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाए जाने से भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं होने वाला है। प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि वह इसके खिलाफ नहीं हैं। लेकिन सवाल है कि लोकतंत्र में कैसे कोई सर्वोच्च हो सकता है। इससे भी ठेठ शब्दों में कहें, तो आप कैसे एक व्यक्ति को सारा अधिकार दे सकते हैं, जो कि अन्य लोगों की तरह गलतियां कर सकता है। दरअसल भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए न केवल कानूनों को सरल बनाने की, बल्कि भ्रष्ट लोगों के साथ सख्ती से निपटने की भी जरूरत है, जिसे सरकार ने कभी नहीं किया।

    जनप्रतिनिधियों ने भ्रष्टाचार के किसी भी मामले को अदालत में साबित करने के लिए असंभव किस्म के प्रमाणों का होना जरूरी बताया है। आखिर सुबूतों को इकट्ठा करने की जिम्मेदारी जांच एजेंसी पर ही क्यों होनी चाहिए? क्यों नहीं ऐसा प्रावधान किया जाता है, जिसमें आरोपी या उसका परिवार खुद को ईमानदार साबित करे। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 34,735 कानून हैं, जिसके पालन की उम्मीद आम लोगों से की जाती है। साफ है कि आरोपी और अपराधी समर्थक मौजूदा कानूनों के सहारे लोकपाल भ्रष्टाचार को कभी खत्म नहीं कर सकता। संदेह का लाभ आरोपी को देने के बजाय समाज को क्यों नहीं दिया जाता?
    (अमर उजाला  से साभार)

    रविवार, 3 जुलाई 2011

    राजा-कनीमोरी पर जसवंत की राय से सिन्हा भी सहमत

    (दैनिक जागरण से साभार)

    राजा-कनीमोरी पर जसवंत की राय से सिन्हा भी सहमत

    Jul 03, 12:53 am
    चंडीगढ़। भाजपा नेता यशवंत सिन्हा भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल में बंद द्रमुक सांसद ए. राजा और कनीमोरी पर अपने पार्टी सहयोगी जसवंत सिंह की राय से सहमत हैं। जसवंत ने पूर्व संचार मंत्री राजा और कनीमोरी को जमानत नहीं देने के औचित्य पर सवाल खड़े किए थे।
    जसवंत के बयान का समर्थन करते हुए सिन्हा ने शनिवार को यहां कहा, 'जेल में बंद लोगों को जमानत लेने का अधिकार है।' उन्होंने कहा, 'अपराधी को जमानत के लिए अदालत जाने का अधिकार है। अपराधी को जमानत देना या न देना अदालत का विशेषाधिकार है।' जसवंत की तरह सिन्हा ने भी इसे अपनी निजी राय बताया।
    चिदंबरम की भूमिका की जांच हो
    पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने शनिवार को 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम की कथित भूमिका की सीबीआई जांच की मांग की और उनपर आरोप लगाया कि इस मामले में उनकी भूमिका उन लोगों से कम नहीं है जो इस सिलसिले में जेल में बंद हैं।
    सिन्हा ने संवाददाताओं से कहा 'बतौर वित्त मंत्री पी चिदंबरम 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में उतनी ही गहराई से लिप्त हैं जितनी गहराई से ए राजा और कनिमोई, और औरों की भांति जबतक उनकी भूमिका की सीबीआई जांच नहीं होती तबतक इस मामले की जांच अपने तार्किक अंजाम तक नहीं पहुंच पाएगी।
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    माया सरकार न जवाब देती है न हिसाब

    Jul 02, 11:41 pm

    माया सरकार न जवाब देती है न हिसाब

    मेरठ। दो सीएमओ की हत्या, उनकी हत्या के आरोपी डिप्टी सीएमओ की जेल में रहस्यमयी मौत उत्तर प्रदेश में अनियमितता और लूटपाट की पोल खोलती है। उत्तर प्रदेश सरकार को प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन [एनआरएचएम] के तहत हजारों करोड़ रुपए मिलते हैं। लेकिन मायावती सरकार इन पैसों का हिसाब-किताब नहीं देती।
    यह आरोप केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने लगाए। वह शनिवार को यहां चौधरी चरण सिंह विवि में आयोजित एक संगोष्ठी में हिस्सा लेने आए थे। उन्होंने कहा कि उन्हें मंत्रालय संभालते हुए दो वर्ष हो गए, लेकिन यूपी सरकार ने किसी पत्र का आज तक जवाब भी नहीं दिया। नए कार्यक्रम, बीमारी या योजनाओं के बारे में हम पत्र द्वारा सूचित करते रहते हैं, लेकिन यूपी सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आता। स्वास्थ्य मंत्रालय की बैठक की भी प्रदेश सरकार अनदेखी करती है। कोई मंत्री तो आता नहीं, शायद ही कभी कोई अधिकारी आया हो।
    उन्होंने कहा कि प्रदेश में इस विभाग में चल रहे गोरखधंधे की सूचना मिलने के बाद कई जिलों में अधिकारियों की टीम को जांच के लिए भेजा गया था। जांच में काफी कमियां पाई गई हैं। हालांकि इस सवाल पर कि क्या केंद्र इस रिपोर्ट के आधार पर कोई कार्रवाई की तैयारी में है, मंत्री ने इतना कहा कि समय आने पर सब ठीक किया जाएगा।
    गुलाम की उलटबांसी
    गांधी दर्शन का पाठ पढ़ाने दिल्ली से मेरठ आए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की जुबान भाषण के दौरान कई बार फिसली। शुरुआत में धर्म-जाति से ऊपर उठकर समाज हित में काम करने की बात करने वाले मंत्री थोड़ी ही देर में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के पेंच में फंस गए। उन्होंने भाषण में ही कह डाला कि 'मैं यह नहीं सोचता कि मैं हिंदू होता तो कुछ और बन जाता'।
    इस बयान को लेकर सभागार में खुसर-फुसर होने लगी। भाषण के दौरान ही उन्होंने अपने बखान में यह भी कह डाला कि यह उन्हीं का प्रयास है कि पिछले वर्ष कश्मीर के युवाओं ने पत्थर फेंके, बम या ग्रेनेड नहीं फेंके।