रविवार, 8 मई 2011

मायावती जी ये नॉएडा की आग है जलाकर राख कर देती है-अँधेरे में चमकती आग की लपटें


ग्रेटर नोएडा में किसानों का प्रदर्शन
शामियाने का कपड़ा जगह जगह से आग पकड़ चुका है. अहाते में रखी मोटरसाइकिलें एक दूसरे के ऊपर गिरी पड़ी हैं. पास में उत्तर प्रदेश रोडवेज़ की दो बसें भी खड़ी हैं.
पीएसी का एक जवान जलते हुए छप्पर से आग लाकर मोटरसाइकिलों के बीच में डाल देता है और कुछ ही देर में पेट्रोल आग पकड़ लेता है. मोटरसाइकिलें जलने लगती हैं.
कुछ ही देर में अचानक मेरे पीछे एक मंदिर की बग़ल का एक छप्पर धू-धू करके जलने लगता है. फिर सड़क के दूसरी ओर पुवाल की ऊँची ढेरी में आग लगा दी जाती है. पीएसी के जवानों की आँखों में ख़ून उतरा हुआ है. “हमारे लोग मार दिए गए हैं – चलाओ गोली इन पर... डर के भागेंगे तो सही”, एक जवान यूँ ही हवा में चिल्लाता है.
सड़क में दोनों तरफ़ पुलिस-पीएसी की जीपें-ट्रक और टेलीविज़न प्रसारण करने वाली गाड़ियाँ क़तार से खड़ी हैं. दिन भर किसानों और पुलिस के बीच युद्ध हुआ है.
भट्टा परसौल गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर बिखरा ख़ून शाम तक सूख चुका था.

युद्धक्षेत्र

हमें पैसा बरतने का शऊर तो है नहीं. जितने पैसे (मुआवज़े में) मिलेंगे वो गाड़ी वग़ैरह में अनाप शनाप ख़र्च हो जाएँगे. क्या करेगी अगली पीढ़ी? या तो चोरी-चकारी करेगी या फिर शहरों में जाकर दूसरों के घरो में झाड़ू पोंछा.
बलवंत सिंह, किसान
अब पीएसी के जवान खेतों पर बैठकर सुस्ता रहे हैं. मुझे बताया गया है कि पुलिस के दस्ते ने किसानों को गाँव के अंदर खदेड़ दिया है. आगे जाने में कोई ख़तरा नहीं है.
टेलीविज़न की दो रिपोर्टर और मैं गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर आगे बढ़ते हैं तभी सामने से वर्दी पहले, राइफ़लें लिए जवानों का हुजूम आता दिखता है.
उनके आगे आगे एक लहूलुहान नौजवान चल रहा है जिसके सिर से ख़ून टपक-टपक कर उसकी क़मीज़ को लाल कर चुका है.
मैं कैमरा निकाल कर फ़ोटो लेने की कोशिश करता हूँ कि चारों ओर से झपट पड़ने को तैयार पुलिस वाले एक साथ ज़ोर से चिल्लाते हैं: “बंद करो ये कैमरा. जाओ यहाँ से ... चलो पीछे लौटो.”
मैं देखता हूँ कि उनके हाथ में राइफ़लें हैं और पल भर के लिए ख़याल मेरे दिमाग़ में कौंधता है कि इन राइफ़लों से अभी के अभी गोलियाँ चलाई जा सकती हैं.
उनके हाथों में डंडे हैं. मैं सोचता हूँ कि ये डंडे पत्रकारों पर कई बार चले हैं और आज के दिन भी चल सकते हैं.
उत्तर प्रदेश पुलिस का एक उम्रदार कान्स्टेबल मेरे पास आकर फुसफुसा कर हिदायत देता है, “ये सब बहुत ग़ुस्से में हैं इसलिए आप यहाँ से चले जाओ. हर तरह के लोग होते हैं कौन जाने कौन क्या कर बैठे.”
हम लौटने लगते हैं.

शांतिपूर्ण तरीक़ा

बलवंत सिंह
बलवंत सिंह कहते हैं उन्हें ज़मीन का मूल्य मिला 845 रुपए प्रति वर्ग मीटर और सरकार आगे इसे 4,750 रुपए में बेच रही है
कुछ देर में एक कार को रोककर ग़ुस्से में भरे पुलिस वाले अपने डंडों से उसके शीशे तोड़ रहे हैं. विंड स्क्रीन चकनाचूर हो चुकी है. कार वाला तुरंत टूटी कार लौटा लाया है. मैं उसकी टूटी विंड स्क्रीन पर लगा स्टिकर पढ़ता हूँ – प्रेस.
इस बीच पुवाल के कई ढेरों, छप्परों और गौशालाओं में आग लगाई जा चुकी है जिसकी लपटें लगातार ऊँची होती जा रही हैं.
गाँव के आसमान में गाढ़ा काला धुँआ फैल गया है और ढलती शाम के झुटपुटे में धरने के लिए लगाए गए शामियाने में लगी आग को दूर दूर से देखा जा सकता है.
भट्टा परसौल गाँव के किसान पिछले चार महीने से इसी शामियाने में शांतिपूर्ण धरने पर बैठे थे. चार महीने से दिल्ली के टीवी, रेडियो, अख़बारों के लिए ये धरना ख़बर की परिभाषा में नहीं आया.
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की स्वप्न योजना – यानी दिल्ली से आगरा तक 165 किलोमीटर की आठ-लेन वाली सड़क – यहाँ से गुज़रेगी. यमुना एक्सप्रेस वे के दोनों ओर बहुमंज़िली इमारतें, फ़ार्म हाउस, गॉल्फ़ कोर्स, कई नए शहर, हवाई अड्डे और यहाँ तक कि अंतरराष्ट्रीय कार रेस प्रतियोगिता फ़ार्मूला-वन के लिए सड़क भी बनाई जाएगी. कुल मिलाकर 10,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा का प्रोजेक्ट !
लेकिन ये काम राज्य सरकार नहीं करेगी. सरकार किसानों की ज़मीन “अधिग्रहीत” करके जयप्रकाश इंफ़्राटैक नाम की प्राइवेट कंपनी को दे रही है.

'भीख का कटोरा'

हमें तो भविष्य दिखता है गड्ढे में. पोते अलग गाड़ियाँ माँगेंगे, बेटे अलग गाड़ियाँ माँगेंगे, बहुएँ अलग हवेलियाँ माँगेंगी... पैसा दो साल में ख़त्म. हमारे हाथ से ज़र (ज़मीन) तो निकल जाएगी. तो फिर क्या करेंगे हम?
बलवंत सिंह, किसान
अचानक पीएसी के जवानों का एक और हुंकारा उठता है. मेरी नज़र पीछे घूमती है. मंदिर के पास वाला छप्पर लगभग भस्म हो चुका है और मंदिर के अंदर से शंख की आवाज़ आने लगती है.
शाम हो चुका है. आरती का समय है.
मैं मंदिर के गेट से अंदर घुसता हूँ. अंदर अहाते मैं हैंडपंप के पास पसीने में तरबतर पीएसी के जवान मुँह हाथ धोकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं.
पास ही चारपाई में एक बुज़ुर्ग बलवंत सिंह लेटे हुए हैं. बाहर बिखरे ख़ून से, आग से और पुलिस के ग़ुस्से से बेख़बर होने का भरम पाले हुए. उनके पीछे अहाते के पार लपलपाती आग का नारंगी रंग चढ़ रहा है.
“ये धरना पिछले चार महीने से चल रहा है और पिछले चार महीने से गौतम बुद्ध नगर के ज़िला मजिस्ट्रेट पूरे इलाक़े के गाँवों में किसानों की बैठक करके उन्हें तोड़ने की कोशिश कर रहे थे कि कि धरने में जाने से तुम्हें क्या हासिल होगा? जो माँग है हमें बताओ, हम पूरी करवाएँगे”, बलवंत सिंह चारपाई पर लेटे लेटे कहते हैं.
“हमें तो ऐसा लगता है कि हमारे हाथ में (भीख का) कटोरा देने की नीयत है सरकार की... कि हम भी झुग्गी-झोपड़ी वालों में शामिल हो जाएँ”.
बलवंत सिंह की बातों से महसूस होता है कि उम्र के चौथे पड़ाव में वो अपनी अगली पीढ़ी के भविष्य को आज ही देख सकते हैं.
वो कहते हैं, “हमें पैसा बरतने का शऊर तो है नहीं. जितने पैसे (मुआवज़े में) मिलेंगे वो गाड़ी वग़ैरह में अनाप शनाप ख़र्च हो जाएँगे. क्या करेगी अगली पीढ़ी? या तो चोरी-चकारी करेगी या फिर शहरों में जाकर दूसरों के घरो में झाड़ू पोंछा.”
बलवंत सिंह को सरकारी योजनाओं की पूरी ख़बर है. वो कहते हैं, "हमारी ज़मीन लेकर सरकार आगे बेच रही है 4,750 रुपए वर्ग मीटर के हिसाब से और हमें दिया जा रहा है 845 रुपए वर्ग मीटर का रेट."

'तांडव'

“हमें तो भविष्य दिखता है गड्ढे में. पोते अलग गाड़ियाँ माँगेंगे, बेटे अलग गाड़ियाँ माँगेंगे, बहुएँ अलग हवेलियाँ माँगेंगी... पैसा दो साल में ख़त्म. हमारे हाथ से ज़र (ज़मीन) तो निकल जाएगी. तो फिर क्या करेंगे हम?”
चार महीने से प्रशासन किसानों के इस धरने को “सहन” कर रहा था लेकिन शुक्रवार को इंतिहा हो गई. गाँव वालों ने रोडवेज़ के एक नए रूट का सर्वे करने गए कर्मचारियों को बंधक बना लिया.
शनिवार की सुबह पुलिस और पीएसी के जवान धरना स्थल पर पहुँचे. चार महीने से धरना पर बैठ कर उकता चुके किसान भड़क उठे. पत्थर चले. लाठियाँ चलीं. गोलियाँ चलीं. दो पुलिस वाले मारे गए और एक गाँव का आदमी भी. ज़िला मजिस्ट्रेट को भी चोट लगी और प्रशासन ने कहा कि उनके पैर में गोली लगी है.
“पीएसी वालों का तांडव शुरू हो गया है”, उत्तर प्रदेश पुलिस का एक सिपाही मोबाइल फ़ोन पर किसी को सूचना दे रहा है.
रेडियो पर सीधे प्रसारण का समय हो गया है. पीएसी के बौखलाए जवानों के बीच खड़े होकर ये कहना समझदारी नहीं है कि वो ही किसानों की जायदाद को आग लगा रहे हैं. तेज़ी से निकल कर हम दूर एक अँधेरी जगह पर खड़े हो जाते हैं.
ये जगह सुरक्षित है और यहाँ के अँधेरे से गाँव में जगह जगह लगी आग के शोले और ज़्यादा चमकदार दिखाई पड़ते हैं.


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