मंगलवार, 5 जुलाई 2011

जड़ पर वार

जड़ पर वार
जोगिंदर सिंह
Story Update : Monday, July 04, 2011    9:37 PM
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लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भले ही कोई नतीजा न निकला हो, लेकिन इससे कानून बनाने की स्थापित प्रक्रिया और संसद की भू्मिका का महत्व रेखांकित हुआ है। इस बैठक में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार कैसा लोकपाल चाहती है। उनका यह कहना गौर करने लायक है, ‘लोकपाल अन्य संस्थाओं और कानूनों से सामंजस्य बिठाकर और संविधान के मूल ढांचे के तहत ही काम करेगा। इसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्य संस्थानों के प्राधिकार और वैध भूमिका से इनकार नहीं होगा। हमारा संविधान संतुलन और नियंत्रण की एक जटिल प्रणाली प्रदान करता है और लोकपाल का नया संस्थान उसी में अपने लिए उचित स्थान बनाएगा।’ दरअसल राजनीतिक दलों को इस पर खासा एतराज था कि सरकार लोकपाल विधेयक के मसौदे पर संसद की उपेक्षा कर नागरिक समाज के प्रतिनिधियों से बात कर रही थी।

लोकतंत्र का एक बड़ा लाभ है कि इसमें हर कोई खुद को सभी विषयों का उस्ताद समझता है और मानता है कि वह जो सुझा रहा है, वह सारी बुराइयों की रामबाण दवा है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के दो सामाजिक कार्यकर्ता देश से भ्रष्टाचार कैसे खत्म किया जाए और कैसे विदेशों से काले धन को वापस लाया जाए, इसे लेकर लोगों का ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। असल में भ्रष्टाचार के शुरुआती स्तर से तो आम आदमी का ही साबका पड़ता है और उसकी तकलीफ को कम करने वाला छोटा-सा कदम भी स्वागत योग्य है। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए या नहीं, यह बहस सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई से ध्यान हटाने का ही काम कर रही है।

किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए यह जरूरी है कि आपको यह पता हो कि समस्या की जड़ कहां है, इसे हल करने की राह में कैसे अड़ंगे हैं और अंततः क्या किया जाए। जन्म प्रमाण पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कॉर्ड, पासपोर्ट, पैन कार्ड, घर की खरीदी-बिक्री या किराये संबंधी करारनामे और इसी तरह के अन्य दस्तावेज तो ऐसे हो गए हैं, जिनकी जरूरत दाखिले से लेकर नौकरी तक हर जगह पड़ती है। और इन्हें सरकारी कर्मचारियों को घूस दिए बिना हासिल नहीं किया जा सकता।

जाहिर है, व्यापक भ्रष्टाचार को साबित करने के लिए अगर किसी प्रमाण की जरूरत है, तो किसी को अपने घर से ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, सत्ता में आने के बाद वह इंस्पेक्टर राज खत्म करने की बात करती है, लेकिन पारित होने वाला हर कानून एक और इंस्पेक्टर को बढ़ाता है। भ्रष्टाचार ने इंस्पेक्टर राज की समस्या को बदतर बना दिया है। अच्छा कॉरपोरेट प्रशासन सुनिश्चित करने के बजाय ऐसे इंस्पेक्टर अकसर सत्ता में बैठे राजनेताओं और अधिकारियों के लिए पैसे उगाहते हैं। कुछ अपवादों के साथ यह सब कुछ केवल यही दर्शाता है कि भारतीय नौकरशाही में हर स्तर पर घूस की संस्कृति मौजूद है।

सरकार व्यापक रूप से भ्रष्टाचार उन्मूलन के प्रति उदासीन है। दरअसल सरकार जब विशेष रूप से भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कोई कानून बनाती है, तो न केवल उसमें पर्याप्त कमियां छोड़ देती है, बल्कि भ्रष्ट और बेईमानों को संरक्षण भी देती है। भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ केंद्र या राज्य सरकार की मंजूरी से ही मुकदमा चलाया जा सकता है। मगर सरकार अभियोग लगाने वाली एजेंसियों के प्रस्ताव को टालकर किसी भी आरोपी को आसानी से बचा सकती है। असल में यह कानून अंगरेजों ने लागू किया था और इसके जरिये वे अपने वफादारों को बचाते थे।

2010 के अंत में 236 कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार से जुड़े आरोप में अभियोजन की अपील केंद्र सरकार के समक्ष लंबित थी। 2005 से 2009 के बीच सीबीआई और सीवीसी ने भ्रष्टाचार के जिन मामलों को अभियोजन के उपयुक्त पाया था, उनमें से मात्र छह फीसदी मामलों पर सरकार से अभियोजन की मंजूरी मिली। बाकी 94 फीसदी मामलों को विभागीय दंड या उससे भी कम पर छोड़ दिया गया।

फिलहाल इस बात पर बहस छिड़ी है कि प्रधानमंत्री और उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाए जाने से भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं होने वाला है। प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि वह इसके खिलाफ नहीं हैं। लेकिन सवाल है कि लोकतंत्र में कैसे कोई सर्वोच्च हो सकता है। इससे भी ठेठ शब्दों में कहें, तो आप कैसे एक व्यक्ति को सारा अधिकार दे सकते हैं, जो कि अन्य लोगों की तरह गलतियां कर सकता है। दरअसल भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए न केवल कानूनों को सरल बनाने की, बल्कि भ्रष्ट लोगों के साथ सख्ती से निपटने की भी जरूरत है, जिसे सरकार ने कभी नहीं किया।

जनप्रतिनिधियों ने भ्रष्टाचार के किसी भी मामले को अदालत में साबित करने के लिए असंभव किस्म के प्रमाणों का होना जरूरी बताया है। आखिर सुबूतों को इकट्ठा करने की जिम्मेदारी जांच एजेंसी पर ही क्यों होनी चाहिए? क्यों नहीं ऐसा प्रावधान किया जाता है, जिसमें आरोपी या उसका परिवार खुद को ईमानदार साबित करे। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 34,735 कानून हैं, जिसके पालन की उम्मीद आम लोगों से की जाती है। साफ है कि आरोपी और अपराधी समर्थक मौजूदा कानूनों के सहारे लोकपाल भ्रष्टाचार को कभी खत्म नहीं कर सकता। संदेह का लाभ आरोपी को देने के बजाय समाज को क्यों नहीं दिया जाता?
(अमर उजाला  से साभार)

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